वो चुप है ज़माने क डर से
कुछ कहती नहीं ,
कुछ बोलती नहीं
याद सब रखती है
भूलने का नाटक भी करती है
कहती है ज़रुरत नहीं मुझको तुम्हारी
पर साथ रहने की  उम्मीद भी रखती है
भीड़ से अलग भी रहती है
पर भीड़ मे गुसने की कोशिश भी करती है
गुस्सा भी करती है  मुझ पर पराया भी बनती है
पर अकेले-२ कोने मे बैठा कर आसू भी बाहती है 
बहुत भोली है वो चालक समझती है
मेरी ख़ामोशी को अपनी जीत समझती है
यही उनकी अदा है जो साथ चलती है मेरे  दुआ बनकर
कभी मेरे साथ तो कभी खवाब मे आकर

अभिषेक  भटनागर
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abhishek

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