सपने  भी  रूठे  है अपने भी छुटे है 
बैठा हूँ  वीरान सड़क पर
ना कोई रह देखती है मुझको 
किधर जाऊ मैं अब 
दीवारे सी  खड़ी है चारो तरफ 
ना कोई सुरक है ना कोई खिड़की 
देखू भी तो कैसे देखू मैं 
खामोश  बैठा हूँ एक कोने मैं 
इस इंतज़ार मैं की जिस 
आधी ने मेरा जीवन ऊजड किया है 
वो ही मेरा घर हरा भरा करेगी 
पर मैं अपना विश्वास लिए बैठा हूँ 
हाँ आज भी मैं तुम्हारे आस मैं बैठा हूँ 
जितना मैं हरता हूँ उतना ही फिर से खड़ा हो जाता हूँ 
तुमसे हारने या जीतने का सवाल नहीं है 
तुम बस खुश रहो और मेरी रहो 
यही चाहता हूँ 
यही चाहता हूँ 

अभिषेक भटनागर "हमराही "

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abhishek

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